कश्मीर में आतंक का साया 1987 से 2020, अभी तक जन्म, विकास और अंतिम साँस तीसरी कडी

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नन्द किशोर जोशी

1989 में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद कश्मीर में चरम पर पहुंच गया. आये दिन श्रीनगर और उसके आस पास हंगामे होने लगे. पाकिस्तान जिंदाबाद और हिंदुस्तान मुर्दाबाद के नारे दिन दहाड़े सरेआम बाजारों में दिये
जाने लगे.

दिल्ली में बैठी कैंद्र सरकार गूँगी बनकर तमाशा देखती रही. कश्मीर से आये दिन युवा पाक अधिकृत कश्मीर जाने लगे सीमा पारकर . वे युवा जम्मू कश्मीर से ऐसे जाते थे बे रोक टोक जैसे हमलोग कटक भुवनेश्वर में आवागमन करते हैं. सीमा पर पूरी ढील थी , दोनों तरफ.

बेरोजगार कश्मीरी युवाओं को हसीन ख्वाब दिखाया जाता था कि अगर मरगये तो उपर सीधे जन्नत जाओगे,वहाँ हूर मिलेंगी और आप ऐश करोगे जन्नत में.

अगर जिंदा रहेतो यहाँ ऐश करोगे पाकिस्तान में जिंदगी भर,मजे करोगे. इनसारे जाली हसीन ख्वाबों के पीछे बेरोजगार कश्मीरी युवा पागलपन दिखा कर पाकिस्तानी एजेंटो के झाँसे में आते गये , आतंकवाद की कुछ महीनों की ट्रेनिंग लेते रहे और आतंकवाद का कहर यहाँ कश्मीर
में बरपाते रहे.

उसी समय 1989 से 1990 के बीच अलगाववादी ताकतें पाक के इशारे और फंड पाकर कश्मीर में जोरदार हंगामा, हत्या, लूटपाट करते रहे.

जेकेएलएफ, हुर्रियत कोन्फ्रेंश जैसी भारत विरोधी, पाकिस्तान परस्त ताकतों का हौसला बुलंद था.आलम यहाँ तक था कि हिंदुओं को कश्मीर घाटी से निकालने का षडयंत्र रचा जाने लगा खुले आम.कश्मीर की सरकार चुपचाप देखती सुनती रही.

कश्मीरी पंडितों को मस्जिदों के माइक से फरमान जारी होने लगा कि हिंदुओं तुम्हें 3 विकल्पों से 1को चुनना है.पहला विकल्प है हिंदू धर्म छोड दो , इस्लाम कबूल करो,हम तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे, यहाँ आराम से रहो.

दूसरा विकल्प है कि हिंदू धर्म छोड इस्लाम अगर नहीं कबूलते हो तो जायदाद, लडकियां, जवान औरतें को कश्मीर में हमारे लिए छोड जाओ और तुम कश्मीर से
कहीं ओर भारत के ही किसी कोने में भाग जाओ.

तीसरा विकल्प है कि अगर दोनों में से कोई एक मंजूर नहीं तो मरने के लिए तैयार होजाओ. हुआ भी यही तीन दिन तक लगातार घाटी में हिंदुओं का सरेआम कत्लेआम
हुआ, औरतों की , लडकियों की इज्ज्त लूटी गयी, बलात्कार के बाद कइयों की हत्या भी कर दीगयी. हिंदुओं की जमीनों पर कब्जा कर लिये.

आज भी बचेखुचे कश्मीरी पंडित जम्मू, दिल्ली तथा देश के अन्य हिस्सों में तंबुओं में रहने के लिए मजबूर हैं, अपने ही देश में शरणार्थी जीवन जीने को मजबूर हैं.क्रमशः

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