अभिषेक जोशी
मेजर जनरल शाबेग सिंह का जन्म सन् 1925 में अमृतसर-चोगावन रोड से 14 किमी दूर खियाला गांव में हुआ था। उसके पिता सरदार भगवान सिंह और मां का नाम प्रीतम कौर था। उसने अपनी 12वीं तक की पढ़ाई अमृतसर के खालसा कॉलेज में की थी। बाद में उच्च शिक्षा के लिए उसने लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में दाखिला लिया। साल 1942 में ब्रिटिश सैन्य अफसरों ने लाहौर के कॉलेजों का दौरा किया और उन्हें भारतीय सेना केडर सेवा के लिए चुन लिया गया।
1962 में जीता था हाजीपीर का इलाका: भारतीय सैन्य अकादमी में ट्रेनिंग के बाद शाबेग सिंह गढ़वाल रायफल्स में बतौर सेकेंड लेफ्टिनेंट तैनात कर दिया गया। कुछ ही दिनों बाद रेजिमेंट को जापान से लड़ने के लिए बर्मा भेज दिया गया। शाबेग सिंह ने उन दिनों अपनी युनिट के साथ मलाया में लड़ाई लड़ी थी। बंटवारे के बाद शाबेग सिंह भारतीय सेना के 50वीं पैराशूट ब्रिगेड की पहली बटालियन में शामिल हुआ। बाद में उसे 11 गोरखा रायफल्स की तीसरी बटालियन के नेतृत्व के लिए चुना गया। उसकी बटालियन ने सन 1962 में हाजीपीर की चोटी पर कब्जा किया था। लड़ाई से पहले की शाम शाबेग सिंह को अपनी मां का टेलीग्राम मिला था कि घर पर पिता की मौत हो चुकी है। लेकिन शाबेग सिंह ने उस टेलीग्राम को अपनी जेब में रख लिया और बटालियन में किसी ने भी इस खबर को नहीं जाना।
1971 में दी थी मुक्ति वाहिनी को ट्रेनिंग: सन 1971 के भारत—पाक युद्ध में जनरल सैम मानेक शॉ ने खासतौर पर उस वक्त ब्रिगेडियर शाबेग सिंह को बुलवाया। मानेकशॉ ने शाबेग सिंह को डेल्टा सेक्टर का इंचार्ज बनाया और अगरतला से सेना का नेतृत्व करने का आदेश दिया। शाबेग सिंह के पास हमले की तैयारी, योजना, इंतजाम और नेतृत्व की जिम्मेदारी थी। बाद में शाबेग सिंह को बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों को गुरिल्ला युद्ध कला सिखाने की भी जिम्मेदारी दी गई। उससे गुरिल्ला युद्ध कला सीखने वालों में मेजर जिया उर रहमान और मोहम्मद मुश्ताक भी शामिल थे। जिया उर रहमान बाद में बांग्लादेश के राष्ट्रपति बने और मोहम्मद मुश्ताक बांग्लादेश के सेना प्रमुख बने। मेजर जनरल शाबेग सिंह को अपनी वीरता और शौर्य के लिए भारतीय सेना ने अति विशिष्ट सेवा मेडल और परम विशिष्ट सेवा मेडल से सम्मानित किया था।
उसी समय इंदिरा गांधी ने अपने तुच्छ राजनीतिक स्वार्थ के लिए सेना के बहादुर और जांबाज मेजर जनरल को बागी बना दिया था। गौरतलब है कि भारतीय सेना के जांबाज़ मेजर जनरल शाबेग सिंह को इंदिरा गांधी ने रिटायरमेंट के मात्र 1 दिन पहले यह कहकर निलंबित कर दिया कि उन्होंने अपना घर बनवाने के लिए सेना के ट्रक का इस्तेमाल किया था।
उन्हें निलंबित करने के लिए ना तो पूरी प्रक्रिया का पालन किया गया ना ही कोई कोर्ट ऑफ इंक्वायरी बनी जबकि इतने बड़े पद पर बैठे व्यक्ति को निलंबित करने के लिए पूरी प्रक्रिया का पालन करना जरूरी होता है। उसके बाद कानूनी लढाई लड़ के मेजर जनरल शाबेग सिंह अपने आप को बेकसूर साबित करने में सफल रहे।
इस घोर अपमान को मेजर जनरल शाबेग सिंह बर्दाश्त नहीं कर सके और खालिस्तान आंदोलन के प्रणेता संत जनरैल सिंह भिंडरावाला के साथ शामिल हो गए।
आॅपरेशन ब्लूस्टार, खालिस्तानी समर्थकों के खिलाफ अमृतसर के पवित्र स्वर्ण मंदिर में भारतीय सेना के द्वारा चलाए गए आॅपरेशन का नाम है। लेकिन इस आॅपरेशन में दोनों तरफ से लड़ने वालों का नेतृत्व भारतीय सेना के अधिकारी ही कर रहे थे। भारतीय सेना के जवानों की कमान उस वक्त डिविजन कमांडर केएस बरार के हाथों में थी। वहीं खालिस्तानी समर्थको का नेतृत्व सेना से निष्कासित मेजर जनरल शाबेग सिंह ने किया था। ये मेजर जनरल शाबेग सिंह की घेराबंदी ही थी, जिसके कारण भारतीय सेना को अकाल तख्त में छिपे आतंकियों को निकालने के लिए 6 से ज्यादा विजयंत टैंकों का सहारा लेना पड़ा था। और जिसकी वजह से भारतीय सेना को नाकों चने चबा दिए थे।
पत्रकार शेखर गुप्ता को दिए अपने इंटरव्यू में ब्लूस्टार के कमांडिंग अफसर रहे लेफ्टिनेंट जनरल केएस बरार ने बताया,”शाबेग सिंह ने ही मुझे अकादमी में लड़ना सिखाया था। मैं उसका कैडेट था। सन् 71 की लड़ाई हमने ढाका में साथ में लड़ी थी। मैं 1ST मराठा का नेतृत्व कर रहा था जबकि वह मुक्ति वाहिनी के साथ थे। ब्लू स्टार के बाद जब हमने सरेंडर करने वालों और बंधक बनाए गए लोगों से पूछताछ की तो उन्होंने बताया कि शाबेग सिंह ने भिंडरावाले से कहा था मैं उसे जानता हूं। उसका नाम केएस बरार है। वह भी जट सिख है और मेरा ही सिखाया हुआ है। हमारा मुकाबला इतना आसान नहीं होगा।
लेफ्टिनेंट जनरल केएस बरार ने पत्रकार शेखर गुप्ता को बताया,” शाबेग सिंह ने अकाल तख्त पर भारी सुरक्षा इंतजाम किए थे। उसने खिड़कियों के पीछे रेत से भरी बोरियां लगा दी थीं। जबकि फर्श से थोड़ा ऊपर छोटे छेदों से मशीनगन फायर करने के इंतजाम किए थे। इंतजाम ऐसा था कि जो अंदर आए तो बाहर न जा सके। उसका मकसद ये था कि किसी तरह हमारे हमले की रात पार हो जाए। सुबह के चार बजते ही पूरे पंजाब से लोग हमारा विरोध करने के लिए भालों और बंदूकों के साथ अमृतसर में आ पहुंचते। तब हम कुछ भी नहीं कर पाते।
जनरल केएस बरार ने बताया,”5 जून की रात 10.30 बजे जब पैराशूट रेजिमेंट की पहली बटालियन कमांडो घंटाघर से अंदर परिक्रमा पथ की ओर बढ़ी तो हमारे कमांडो खिड़कियों पर फायर करने लगे लेकिन जमीन पर लेटे खालिस्तानी लड़ाकों ने मशीनगन से उनकी टांगों पर गोलियां मारीं। उन्हें नुकसान सहकर पीछे हटना पड़ा। इसके बाद मशीनगन पोस्ट हटाने के लिए उतरी दूसरी कमांडो टुकड़ी को भी भारी नुकसान हुआ। इसके बाद हमने 7 गढ़वाल रायफल की दो कंपनियों और 15 कुमाऊं रेजिमेंट की दो कंपनियों की मदद से कड़े संघर्ष के बाद कम से कम स्वर्ण मंदिर परिसर में खड़े होने की जगह बनाई थी।
तबाह कर दिया था टैंक: ले. जनरल बरार के मुताबिक,”इसके बाद हमने टैंक उतारने का फैसला किया। जैसे ही हमारे टैंक परिक्रमा पथ पर आगे बढ़े उन पर चीन के बने हुए राकेट संचालित ग्रेनेड लांचर से हमला हुआ। हमारा टैंक तबाह हो चुका था। इसके बाद हमने छह या अधिक विजयंत टैंक उतारे। जिन्होंने 105 एमएम की नली से 80 से ज्यादा गोले दागकर शाबेग सिंह की घेराबंदी को तबाह कर दिया था। लड़ाई के बाद हमें अकाल तख्त के पास ही शाबेग सिंह की लाश मिली थी।”