श्री पुरषोत्तम अग्रवाल की कविता : कोरोना के संबाहक -II

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सीमाएं तो सील हो गई
भीड़ हटी बाजारों से
फिर भी खतरा बना हुआ है
छुपे हुए गद्दारों से।

जनमानस है शुन्य हो गया
भीड़ भरे बाजारों से
लेकिन शोर सुनाई देता
कुछ मजहब के नारों से।

हाथों में पत्थर नफरत की
आग बरसती है मन में
होठ खुले तो गाली निकले
जहर भरा तन मन में।

जीत मुक्कमल थी कोरोना से
बात है ये बिल्कुल सच्ची
लेकिन कुछ जमातियों को
नहीं बात लगी बिल्कुल अच्छी।

लॉक डाउन की उड़ी धज्जियाँ
मरकज सजगया चौपालों से
नमाज अदा हो मिस्जद में
ऐलान हुआ फरमानों से।

खुन खराबा,कट्टरता,जाहिलपन
ही मजबुरी है
ये मानवता के दुश्मन हैं
इनका उपचार जरुरी है।

 

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